भारत में फुलब्राइट के 40 साल

भारत में फुलब्राइट प्रोग्राम की 40 वीं वर्षगांठ मनाने के क्रम में कई भारतीय प्रतिभागियों के संस्मरणों को शामिल करते हुए एक स्मृति प्रकाशन का काम हुआ। स्पैन में इसके मुख्य अंशों के प्रस्तुत किया जा रहा है।

मीना सान्याल

फ़रवरी 1990

भारत में फुलब्राइट के 40 साल

बाएं: चित्रा नायक (दाएं), 1953; बिल्कुल ऊपर मध्य में : गिरीश कर्नाड अपने परिवार के साथ।; मध्य में नीचे: एस. वी. चित्तिबाबू (मध्य में), 1966; दाएं: प्रभाकर माचवे , 1960। फोटोग्राफ: साभार यूएसईएफ़आई

युनाइटेड स्टेट्स एजुकेशनल फाउंडेशन इन इंडिया (यूएसईएफआई) 1950 से ही अमेरिका और भारत के बीच विद्वानों के आदान-प्रदान के लिए अहम केंद्र के रूप में बढ़ा है, जिसके तहत हम दोनों देशों के बीच सहयोग, मित्रता और समझ के विशेष रिश्ते बने।

भारत में फुलब्राइट प्रोग्राम को संचालित करने के लिए यूएसईएफआई का गठन 2 फरवरी, 1950 को एक सहमति पत्र पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और अमेरिकी राजदूत लॉय डब्ल्यू. हेंडरसन के हस्ताक्षर के साथ किया गया। इस कार्यक्रम का प्राथमिक लक्ष्य ‘‘शैक्षिक संबंधों के जरिए ज्ञान और पेशेवरों के एक्सचेंज के माध्यम से अमेरिका और भारत के बीच आपसी समझदारी को बढ़ाने को प्रोत्साहित करने का है।’’ शुरुआती वर्षों में इस फाउंडेशन की सफलता का श्रेय इसकी पहली निदेशक प्रख्यात ओलिव रेडिक के प्रयासों को जाता है। भारत-अमेरिका एक्सचेंज प्रोग्राम को प्रोत्साहित करने में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। रेडिक, तमाम शैक्षिक और विद्वत पहलों से जुड़ी रहीं, जिनमें 1964 में हैदराबाद में अमेरिकी अध्ययन शोध केंद्र की स्थापना भी शामिल है। फाउंडेशन की कमान संभालने जब वह 1951 में भारत आईं, तब भी वह भारत के लिए अजनबी नहीं थीं। वह लखनऊ के आइसाबेला थॉबर्न कॉलेज में 1920 के दशक के शुरुआती वर्षों और फिर 1930 के दशक के अंतिम वर्षों में अर्थशास्त्र पढ़ाया करती थीं। उन्होंने 1940 के दशक के मध्य में अमेरिकी विदेश विभाग में भी काम किया और भारत में उनके प्रवास के वक्त वह नई दिल्ली में कार्यरत थीं। इसीलिए जब वह फाउंडेशन का काम संभालने आईं, तो उनके पास भारत के बारे में खुद का प्रत्यक्ष अनुभव था, कॉलेजों के कक्षाओं से उनका पुराना रिश्ता और एक वृहद प्रशासनिक अनुभव भी उनके साथ था।

रेडिक से लेकर मौजूदा शारदा नायक तक विशिष्ट निदेशकों की एक लंबी फेहरिस्त है। 1973 में चार्ल्स बोवी, जो दो साल तक निदेशक रहे, ने पहले भारतीय निदेशक सी.एस. रामाकृष्णन को अपना चार्ज सौंपा। उन्होंने इसके बारे में कहा कि ‘‘यह काम काफी पहले ही हो जाना चाहिए था।’’ बोवी ने कहा, ‘‘यह यूएसईएफआई में मेरी सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि है। फाउंडेशन को सक्षम भारतीय हाथों में सौंपना एक ऐसी पहल है जो शुरुआत से ही फायदेमंद साबित हुई है।’’

इतने वर्षों में भारत में फुलब्राइट प्रोग्राम से 7500 लाभार्थियों को अनुदान मिला है- इनमें से आधे भारतीय हैं जबकि आधे अमेरिकी। फुलब्राइट ग्रांट हासिल करने वाले बहुत से भारतीय अपने देश में विशिष्ट कार्यभार संभालने के लिए वापस गए। 1985 में, उदाहरण के लिए, भारतीय विश्वविद्यालयों में 27 उपकुलपति फुलब्राइट प्रतिभागी थे। भारत के फुलब्राइट प्रोग्राम की गिनती विश्व के सबसे बड़े प्रोग्रामों में से एक में की जाती है। दूरगामी पहुंच वाले इस प्रोग्राम को अमेरिकी सीनेटर जे. विलियम फुलब्राइट की सोच से ही संभव हो पाया। दूसरे महायुद्ध की समाप्ति के बाद, फुलब्राइट ने एक ऐसा कानून बनाने की पहल की जिससे गोदामों में बेकार पड़ी अमेरिकी संपत्तियों का उपयोग दुनिया के देशों मे आपसी समझ को बेहतर बनाने की जरूरत को पूरा करने के काम में किया जा सके। उन्होंने पाया कि विभिन्न संस्कृतियों और समाजों के बीच खाई को पाटने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विद्यार्थियों, शोधार्थियों और प्रोफेसरों के एक्सचेंज प्रोग्राम होने चाहिए।

एक कानून के रूप में फुलब्राइट एक्ट को 1 अगस्त 1946 को स्वीकार किया गया। इस एक्ट के तहत अमेरिका के पास उपलब्ध विदेशी मुद्रा का इस्तेमाल अमेरिका और संबद्ध देशों के बीच शैक्षिक कार्यक्रमों के एक्सचेंज में किया जाना संभव हो पाया जिसमें अध्ययन, अध्यापन, व्याख्यान देने या एडवांस रिसर्च जैसे कार्य शामिल हैं। इन विचारों को पंख लगा और यह प्रोग्राम लगातार दृढ़ता हासिल करता गया। आज दुनिया के 40 देशों के साथ अमेरिका के औपचारिक एक्सचेंज करार हैं और बहुत से दूसरे देश इस प्रोग्राम में अमेरिकी सूचना सेवा के सांस्कृतिक कार्यालयों के माध्यम से इसमें शामिल होते हैं।

1987 में, इस प्रोग्राम में दुनिया भर के 20,859 व्यक्तियों ने हिस्सा लिया। उस वर्ष अमेरिका का इस कार्यक्रम में योगदान 14 करोड़ 70 लाख डॉलर का था। एक्सचेंज प्रोग्राम के  फायदों को देखते हुए दूसरे देशों की सरकारों ने भी अमेरिका की तर्ज पर अपना योगदान बढ़ाया है।

अगर आज के विद्यार्थी दुनिया के दूसरे देशों में ज्यादा आसानी से और बारंबार आ-जा सकते हैं, तो इसका श्रेय कुछ हद तक फुलब्राइट प्रोग्राम को भी जाना चाहिए। हालांकि एक्सचेंज प्रोग्राम के लिए पर्याप्त मात्रा में सरकारी पैसा दिया जा रहा है लेकिन इस बात का ध्यान रखा जा रहा है कि इस पर राजनीतिक प्रभाव कम से कम हो। इसके लिए, अमेरिका में विदेशी छात्रवृत्ति के निर्धारण के लिए एक बोर्ड को दायित्व सौंपा गया है और प्रतिभागी देशों के साथ संयुक्त फाउंडेशन या कमीशन को यह जिम्मेदारी सौंपी जाती है।

फुलब्राइट अनुदान हासिल करने के लिए दुनिया भर के आवेदकों को प्रतियोगिता और मेरिट के आधार पर चुना जाता है। इसके लिए यात्रा निजी हैसियत में करनी होती है, किसी सरकारी प्रतिनिधि के तौर पर नहीं। अधिकतर छात्रवृत्तिधारी इसमें इतने लंबे समय तक रहते हैं कि मेजबान देश और वहां के समाज के बारे में परिचित हो सकें और किसी ठोस अकादमिक काम को अंजाम दे सकें। विभिन्न देशों के लोगों के बीच लगातार संपर्क बना रहने से हमारी दुनिया की विभिन्न संस्कृतियों और जीवनशैली के प्रति सम्मान और समझ में बढ़ोतरी होती है।

जे.डब्ल्यू. फुलब्राइट, पूर्व अमेरिकी सीनेटर

मुझे आपको और भारतीय फुलब्राइट कमीशन के सदस्यों को उसकी 40वीं वर्षगांठ पर बधाई और शुभकामना संदेश भेजते हुए अपार हर्ष हो रहा है। युद्ध कर्ज से बचे पैसों से बने इस शैक्षिक फाउंडेशन ने इस प्रोग्राम को स्थायित्व और सम्मान दिया जिससे इसकी प्रभावशीलता बढ़ाने में योगदान मिला। इसके अलावा, यह भविष्य में शांति के लिए युद्ध के मलबे को रचनात्मकता में बदलने के प्रयास का प्रतीक भी है। आज परमाणु तकनीक के इस हाईटेक दौर में मानव संबधों को लेकर मनोविज्ञान और शिक्षा की मूल चुनाती है। हमें करुणा और सामन्य समझ, बुद्धिमत्ता और रचनाधर्मिता और सहानुभूति एवं समझ के अपने मानवीय गुणों के आधार पर संस्कृतियों को समझना होगा। इन गुणों की वृद्धि के लिए प्रयास ही एक शिक्षाविद का सर्वोच्च योगदान है। यही वह मूलमंत्र है जिसके लिए भारत में यू.एस. एजुकेशनल फाउंडेशन और उसके प्रतिभागी पूरी तरह से समर्पित हैं।

डब्लू. रॉबर्ट होम्स, यूएसईएफआई निदेशक, 1967-71

यह जानते हुए वास्तविक हर्ष हो रहा है कि भारतीय अमेरिकी शैक्षिक फाउंडेशन जल्द ही 40 वर्ष का होने वाला है। नई दिल्ली में गुजरे हमारे 4 वर्ष कई मायनों में मेरे जीवन में सबसे ज्यादा खुशियों वाले और सार्थक वर्ष थे। वहां पर हमने जो मित्र बनाए, खासतौर से भारतीय और अमेरिकी विद्वत समुदाय के लोगों के साथ, दर्जनों भारतीय विश्वविद्यालयों के साथ जो परिचय संभव हो पाया और साथ ही भारत और विशेषतौर पर दिल्ली के समृद्ध सांस्कृतिक तानेबाने का हिस्सा बनने का जो सौभाग्य मुझे हासिल हुआ, उसका अंदाज नहीं लगाया जा सकता है। मुझे यह जानकर और संतोष होता है कि  भारत-अमेरिका संबंधों को नई उंचाई देने के लिए फाउंडेशन की सेवाएं निरंतर जारी हैं और ‘‘फुलब्राइट स्कॉलर’’ अभी भी एक सम्मानित उपाधि है।

जॉन. केनेथ गैलब्रेथ, भारत में अमेरिका के पूर्व राजदूत,  हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी, कैंब्रिज, मेसाच्यूसेट्स

भारत से संबंधित मेरे जुड़ाव वाली कोई भी ऐसी गतिविधि नहीं रही होगी जहां मुझे इससे ज्यादा आनंद मिला हो या फिर बौद्धिक तौर पर कोई भी ऐसा आोयजन नहीं रहा होगा जो इतना सार्थक रहा हो जैसा कि मुझे फाउंडेशन पुरस्कार पाने वालों के साथ मुलाकात से हासिल हुआ। इस महत्वपूर्ण अवसर पर मेरी बधाई।

एम.एस. राजन, 1950-52
प्रोफेसर एमेरिटस ऑफ इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन, स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़, जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली

फुलब्राइट-स्मिथ-मंट ग्रांट जिनके कारण मैं कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने के लिए सक्षम बन सका, ने कॅरियर को लेकर मेरी सोच में बड़ा परिवर्तन किया और उसे प्रशासनिक (जिसे मैंने 1950 में इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफेयर्स में संभाला था) से शैक्षिक जगत की तरफ मोड़ दिया। यह मेरे लिए बड़े आभार की बात थी। अंतरराष्ट्रीय मामलों के अध्ययन और शोध के उन दो वर्षों ने एक शिक्षाविद के रूप में तैयार होने वाले मेरे कॅरियर की बुनियाद डाली।

एम. एस. गोरे, 1951-53
पूर्व निदेशक, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़, बॉंबे

जो सबसे मूल्यवान बात रही, वह यह कि मुझे अपने हिसाब से काम करने की आज़ादी थी और किसी टेक्स्ट बुक की कोई बाध्यता नहीं थी। यह भारतीय विश्वविद्यालयों की परंपरा से बिल्कुल अलग था। इसने मुझे खुद में विश्वास करना और जमकर पढ़ना सिखाया। यह एक नया अनुभव था, हालांकि साथ में आने वाली चिंताओं से यह पूरी तरह से मुक्त नहीं था।

चित्रा नायक, 1953-54
मानद निदेशक, स्टेट रिसॉर्स सेंटर फॉर नॉनफॉर्मल एजुकेशन, पुणे

कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अध्ययन काफी दिलचस्प था। मैंने ग्रामींण शिक्षा प्रशासन का विकल्प चुना था और उसी हिसाब से पाठ्यक्रम का चुनाव भी किया था। अभी भी मुझे डॉ. जेरोम ब्रूनर ( ग्रामीण समाज विज्ञान), डॉ. स्लोन वेलैंड (विद्यालय और समुदाय), डॉ. काइर (ग्रामीण शिक्षा) और डॉ. क्लार्क (अर्थशास्त्र और शिक्षा) के सेमिनार अच्छे से याद हैं। कोलंबिया में माहौल आरामदायक और दोस्ताना था।

प्रभाकर माचवे, 1959-61
संपादक, चौथा संसार, इंदौर

विस्कॉंन्सिन यूनिवर्सिटी के इंडियन स्टडीज़ विभाग में मैं चार पाठ्यक्रमों को पढ़ाता था, दो भारतीय साहित्य से संबंधित, एक प्राचीन भारतीय संस्कृति पर और एक महात्मा गांधी से संबंधित पाठ्यक्रम था। मैं अमेरिका में करीब ढाई साल रहा और मैं इसके एक छोर से दूसरे छोर तक घूमा। वे दिन कैनेडी के चुनाव प्रचार के दिन थे। नेहरू अमेरिका की यात्रा पर आए थे और उन्होंने मुझे न्यूयॉर्क में मिलने के लिए बुलाया था।

उस सुदूर स्थान पर मुझे चार चीजें बहुत पसंद आईं। तकनीकी उन्नति और गैजेट पर निर्भरता के बावजूद दूसरी संस्कृतियों के प्रति जिज्ञासा, नजरिए में ताजापन, निजी विचारों की स्वतंत्रता और मानवतावादी दृष्टिकोण। शिकागो के रामकृष्ण सेंटर में मेरी मुलाकात एक ऐसे अमेरिकी नौजवान से हुई जिसने विवेकानंद का अध्ययन किया हुआ था। बर्कली में, जहां एक सेमिनार में मैंने मध्यकालीन काव्य में भक्ति विषय पर पढ़ाया, मैंने पाया कि छात्रों की इस विषय में दिलचस्पी के विभिन्न रूप थे- जैसे कि भारतीय मूर्ति कला में शिव, तुकाराम का मानवतावाद, सूरदास का संगीत, कबीर की भाषा, टैगौर पर संतों के काव्य का प्रभाव। उस अनुभव ने मुझे खुद बहुत परिष्कृत किया।

.एम.नंजुनदप्पा, 1963-64
उप-कुलपति, बैंगलोर यूनिवर्सिटी, बैंगलोर

यूनिवर्सिटी, सरकार, उद्योग के बारे में हॉर्वर्ड का माडॅल या नजरिया, विद्वता को लेकर उसकी परंपराएं, उसकी संस्कृति और किसी के नजरिए के प्रति सम्मान की बातें मुझे हमेशा उत्साहित करते रहे। यही वे कारक रहे जिन्होंने मुझे भारतीय समाज में कुछ करने की मेरी प्रतिबद्धता यानी मेकर बनने की सोच को मजबूती दी, बजाय इसके कि उसमें एक ज्वाइनर यानी उसका हिस्सा बन कर रहूं।

मैं अमेरिकी सरकार का आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिसकी छात्रवृत्ति के कारण मैं हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी जा सका। दोनों देशों को परस्पर विश्वास की एक डोर जो बांधती है, वही मुझे हॉर्वर्ड ले गई, उसका लोगो -वेराइटस- (सत्य) लगातार मेरे विवेक का रक्षक बना रहा।

एस.वी. चित्तीबाबू, 1966-67
पूर्व उपकुलपति, मदुरै-कामराज युनिवर्सिटी, मदुरै, और अन्नामलई यूनिवर्सिटी, अन्नामलईनगर

उस मनोहारी देश में प्रवास के समय अमेरिकी शिक्षा मात्रात्मक और गुणात्मक दृष्टि से अभूतपूर्व संकट के बीच अभूतपूर्व समाधानों की साक्षी थी। विज्ञान, सामाजिक और नैतिक मूल्यों के मानकों और विश्व परिदृश्य में व्यापक बदलाव ने शिक्षा व्यवस्था पर दबाव को और बढ़ा दिया। इसके कारण सरकारी और निजी दोनों तरह की शैक्षिक संस्थाओं के लिए जरूरी हो गया कि वे सैकड़ों, अभिनव शैक्षिक प्रयोगों, संगठन के नए तरीकों, नए तकनीकी उपकरणों और शिक्षक की एक नए तरह की भूमिका के सहचर बनें। वास्तव में यह मेरे लिए उत्साहजनक और विचारों को झकझोर देने वाला अनुभव था।

हनुमान सिंह, 1985-86
एसोसिएट प्रोफेसर, लाइफ साइंसेज़ विभाग, मणिपुर यूनिवर्सिटी, इंफाल

मेरे शोध का विषय क्षेत्र मछलियों की बायोकेमेस्ट्री था और अमेरिका में शोध के लिए मछलियों को एकत्र करने का मेरा अनुभव बहुत शानदार रहा। भारत में मुझे इस बात की सहूलियत थी कि मेरे पास स्थानीय बाजार से मछलियां लाने के लिए सहायक हुआ करता था। लेकिन जब मैं अमेरिका पहुंचा तो मुझे बताया गया कि मुझे अपने प्रयोगों के लिए समुद्र से खुद मछलियां पकड़नी पड़ेंगी। इससे मेरे लिए बहुत विचित्र से स्थिति पैदा हो गई क्योंकि मुझे फिशिंग नेट और लाइन्स के इस्तेमाल का कोई अनुभव नहीं था। फिर भी मैंने इस चुनौती को स्वीकार किया और खुले समुद्र में अपने कुछ सहयोगियों के साथ मछली पकड़ने निकल पड़ा। अचंभे की बात यह रही कि अपने प्रशिक्षण के पहले ही दिन मैंने एक विशाल स्कप (वह मछली जिस पर हम प्रयोग कर रहे थे) को पकड़ लिया।

गिरीश कर्नाड, 1987-88
नाटककार, निर्देशक, अभिनेता और अध्यक्ष, संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली

शिकागो यूनिवर्सिटी के दक्षिण एशियाई भाषा और संस्कृति विभाग में फुलब्राइट स्कॉलर-इन रेजींडेंस के रूप में मिले अवसर के कारण मैं विस्तार से भारत के नाट्य शास्त्र को पढ़ने के अलावा, दो तिमाही तक मैंने भारतीय शास्त्रीय थिएटर और काव्य जैसे विषय पर अध्यापन करके अपनी समझ को विकसित किया। घंटों, शोध छात्रों और एड डिमॉक जैसे शिक्षकों से बातचीत का मौका मिला। ए.के.रामानुजन के साथ मिलकर भारतीय साहित्य का पाठ पढ़ाया और विभिन्न सेमिनारों में व्याख्यान दिए जिसमें से एक हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर स्टडी ऑफ वर्ल्ड रिलीजंस का सेमिनार भी था। भारतीय थिएटर के बारे में एक पेपर लिखा, रेजेंस्टीन लाइब्रेरी (जो निश्चित रूप से अब तक मैं जिन लाइब्रेरियों में गया हूं, उनमें सबसे बेहतरीन थी) में घंटों समय बिताया, सी. एम. नाइम से जैक ओ लैंटर्न्स को तराशना सीखा, शिकागो में इंटरनेशनल थिएटर ़फेस्टिवल में हिस्सा लिया, कन्नड़ में एक पूरा लंबा नाटक लिखा, उसे अंग्रेजी में अनूदित किया, विद्यार्थियों के साथ मिलकर उसे यूनिवर्सिटी थिएटर में प्रोड्यूस किया और अंत में रोजाना 10 महीनों तक हर शाम घर पर परिवार के साथ बिताई -जो शायद मेरा पेशा भारत में ऐसा कर पाने की इजाजत मुझे कभी नहीं देता।

मूलत: प्रकाशित फ़रवरी 1990



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