रूढि़यों को चुनौती

लेखिका और प्रो़फेसर जिगना देसाई दक्षिण एशियाई समुदाय में कुछ पुरातनपंथी कायदों की नए संदर्भों में पड़ताल कर रही हैं।

कैरी लोवन्थॅल मैसी

नवंबर 2018

रूढि़यों को चुनौती

‘‘बियोंड बॉलीवुड’’ (मध्य में बाएं) की लेखिका और ‘‘एशियन अमेरिकन्स इन डिक्सी: रेस एंड माइग्रेशन इन साउथ’’ (बाएं) की सह-संपादक जिगना देसाई। (फोटोग्राफ: साभार जिगना देसाई)

अपने बचपन के दिनों में लेखिका जिगना देसाई ने खगोलभौतिकी विशेषज्ञ बनने की ठानी थी। 1980 के दशक के आखिरी सालों में जब वह मेसाच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में अपने कॉलेज में थी, तब उन्होंने नक्षत्र विज्ञान के क्षेत्र में कुछ दिलचस्पी भी दिखाई लेकिन जल्दी ही उन्हें सिनेमा के प्रति अपने प्रेम का अहसास हो गया। अगले कुछ ही वर्षों में प्रवासी भारतीयों के बारे में उनकी फिल्मों ने उनकी बौद्धिक प्रतिभा को और तराशा।

जिगना देसाई लोकप्रिय हिंदी सिनेमा के साथ पली-बढ़ीं। आप चाहें भारत में बड़े हो रहे हों या भारतीय अमेरिकियों के बीच, भारतीय सिनेमा की अनदेखी कर पाना मुश्किल है। ट्विन सिटीज कैंपस, मिनेसोटा यूनिवर्सिटी में जेंडर, वुमेन एंड सेक्सुएलिटी अध्ययन विभाग में प्रोफेसर देसाई का कहना है, ‘‘1970 के दशक में भारतीय फिल्मों की विषयवस्तु अलग हुआ करती थी। वह हमेशा भारत के बारे में होती थी न कि प्रवासियों से संबंधित मसलों पर। मेरे कॉलेज के दिनों में हनीफ कुरैशी की फिल्मों का प्रादुर्भाव हुआ। और उसके बाद 1985 से लेकर 1995 तक दूसरे फिल्म निर्माताओं की फ़िल्में। फिर नारीवादी और प्रवासी विषयों पर फिल्मों का दौर उभरा, जिनसे प्रवासियों की जीवनचर्या की झलक मिलती थी।’’

देसाई ने इन फिल्मों के जरिए उठाए जाने वाले सवालों में दिलचस्पी दिखाई। वह स्पष्ट करती हैं, ‘‘इनके जरिए उठाए जाने वाले सवाल सिर्फ सांस्कृतिक परिदृश्य से ही संबंधित नहीं थे- क्या आप पर्याप्त भारतीय हैं? – बल्कि उनके माध्यम से भारतीयता के मानकों के अलावा नस्ल, लिंग, लैंगिकता और राष्ट्र जैसे सवालों का सामना वे कैसे करते हैं यह भी सामने आ रहा था। एक भारतीय, ब्रिटिश,या अमेरिकी और कनाडाई होने का क्या मतलब है? ये सवाल सिर्फ यह बात या वह बात के ही नहीं हैं।’’

उनकी पहली किताब ‘‘बियोंड बॉलीवुड,’’ वर्ष 2003 में प्रकाशित हुई। इसमें प्रवासी और अंतरराष्ट्रीय सिनेमा के मुद्दे की गहरी पड़ताल की गई थी। देसाई की किताब ऐसे समय पर आई थी जबकि दक्षिण एशियाई प्रवासियों के मसलों पर काफी कम साहित्यिक सामग्री उपलब्ध थी। इसके बारे में इस तरह प्रतिपादन नहीं किया गया था जैसे कि अफ्रीकी प्रवासियों के बारे में किया जा चुका था। वह कहती हैं, ‘‘मैंने यह नज़रिया अपनाया कि इन तीनों स्थानों (अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा) के प्रवासी समुदाय पर एकसाथ सोचने का क्या अर्थ है, इन स्थानों पर दक्षिण एशियाई लोगों के नस्ली मसले, उनके प्रवासन का इतिहास तथा काफी कुछ और। इसके अलावा प्रवासी समुदाय पर आलोचनात्मक नजरिए से विचार। मैं पहले तो इसे प्रकाशित ही नहीं करा सकी। इसीलिए इस विचार को बॉलीवुड जैसे ज्यादा लोकप्रिय माध्यमों के जरिए व्यक्त कर लोगों तक पहुंचाने का रास्ता चुनना पड़ा।’’

देसाई का मानना है कि, उनके शोध में हमेशा सत्ता और भेदभाव के सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश की गई है। प्रवासी समुदाय में इन मसलों को किस तरह से समझा जाता है, यह वर्ग, मजहब, नस्ल, लिंग और लैंगिकता को लेकर भेदभाव पर भी निर्भर करता है। उदाहरण के लिए असामान्य सेक्स रुझानों वाले लोग किस तरह से मौजूदा ढांचे में फिट हो पाते हैं या नहीं। अब, वह विक्लांगता के कारण हो रहे भेदभाव पर अपने काम को केंद्रित कर रही हैं जिसमें खासकर मानसिक और देखने-सुनने से जुड़े विषय भी शामिल हैं और उनमें नस्ल, प्रवास और औपनिवेशकता के बाद के हालात जैसे मुद्दों को भी समाहित कर के देखा जा रहा है।

देसाई सवाल करती हैं, ‘‘जो लोग न्यूरोटिपिकल नहीं हैं, उनका क्या होता है? हम खांचों में वर्गीकरण कैसे खत्म कर सकते हैं? उस समय क्या हो जब इन भेदों को लेकर चिंतन के तरीके चिकित्सा क्षेत्र तक पहुंच जाएं और उनका वैश्वीकरण हो जाए। पहले से चली आ रही समझ के परिप्रेक्ष्य में कैसे उनसे संवाद किया जा सकता है।’’ उनका कहना है, ‘‘हमें मानसिक विविधता को स्वीकारना और महत्व देना होगा और देखना होगा कि इसका सचमुच में महत्व है, चाहे ऐसा ऑटिज्म, डिसलेक्सिया, एडीएचडी (अटेंशन डेफिसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर) या किसी और वजह से हुआ हो। हम सभी को यह बताया जाता है कि हमारे अस्तित्व का एक सही तरीका होता है और अपना वजूद बनाए रखने का भी। हम सभी खुद के विकास के  साथ अपने मस्तिष्क के विकास के लिए भी जिम्मेदार ठहराए जाते हैं।’’ वह स्पष्ट करती हैं कि कुछ लोगों के  मामलों में हस्तक्षेप किया जाता है क्योंकि उन्हें सामान्य की तरह से नहीं देखा जाता और इसी वजह से उनकी स्वीकार्यता नहीं होती। ‘‘सवाल यह उठता है कि हम सामान्य होने की अपेक्षा ही क्यों करते हैं और हमें उस रूप में कब स्वीकार किया जाएगा जैसे हम हैं? नस्ल, राष्ट्र और वैश्विक नजरिया किस तरह से सामान्य और असामान्य की अवधारणा को प्रभावित करता है?’’

देसाई की सारी कृतियां नारीवादी और अलग यौन रुझान वाले लोगों के अध्ययनों से प्रभावित हैं, क्योंकि ये सारे सवाल सत्ता और नए तरीके से सोचने और उसे समझने से संबंधित हैं। वह इस बात पर ज़ोर देती हैं कि वह यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनेसोटा के बहुत तरह के ग्रेजुएट विद्यार्थियों के साथ मिलकर काम कर रही हैं, जिनमें कई राष्ट्रों की सीमाओं से परे जेंडर और सेक्सुएलिटी जैसे मसलों और औपनिवेशिक काल के पश्चात भिन्न रुझानों वाले के अनुभव पर काम करने भारत से आते हैं। उनसे हाल ही में ऐसे विद्यार्थियों ने भी संपर्क साधा है जो औपनिवेशिक काल के बाद के दौर में भारत में विक्लांगता के मसले पर अध्ययन में दिलचस्पी दिखा रहे हैं। वह महसूस करती हैं कि यह एक ऐसा क्षेत्र है जो महत्वपूर्ण है। वह कहती है, ‘‘मैं यह देखने को उत्सुक हैं कि यह पहल कहां पहुंचती है।’’

तो, अब अंतरिक्ष और खगोलशास्त्र के बचपन के सपने कहां हैं? देसाई को अब भी खलोगशास्त्र से बेहद लगाव है और वे अपने बच्चों को इस बारे में जितना कुछ भी पढ़ा सकती हैं, पढ़ाती हैं।

वह कहती हैं, ‘‘मैं सोचती हूं कि, मैं ऐसा काम कर रही हूं जिससे लोगों को अपनी दास्तां बताने की प्रेरणा मिलती है और उनका खुद का ज्ञान बढ़ता है। शायद यही वह वजह थी जिसके चलते मैंने अपना काम का क्षेत्र बदला और मैं एक खगोलविद नहीं रह पाई।’’

वह बताती हैं, ‘‘मैं सिर्फ ज्ञानार्जन के लिए ही ज्ञान हासिल करना पसंद करती हूं और खगोलशास्त्र ने मुझे सोचने के लिए अद्भुत सवाल दिए। लेकिन अब मुझे इस बात से प्यार है कि समाज के सत्ता समीकरणों के बारे में अन्य लोगों की सोच को आकार देकर मुझे उनके ज्ञान भंडार को परिवर्तित करने का अवसर मिला है। हमें दुनिया को बदलने के लिए मानविकी की ज़रूरत है।’’

कैरी लोवन्थॅल मैसी स्वतंत्र लेखिका हैं। वह न्यू यॉर्क सिटी में रहती हैं।



  • Kishor kokje

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    टिप्पणियाँ

    “रूढि़यों को चुनौती” को एक उत्तर

    1. Kishor kokje कहते हैं:

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