भारत की तीर्थयात्रा: मार्टिन लूथर किंग, जू.

भारत के लोगों ने अहिंसक विरोध, असहयोग और बहिष्कार के तौरतरीकों के ज़रिये अपनी आज़ादी हासिल की। उसके सिर्फ 12 साल बाद अफ्रीकी अमेरिकी अन्यायपूर्ण कानूनों को बदलने के लिए इन्हीं तौरतरीकों का इस्तेमाल कर रहे थे।

लॉरिंडा कीज़ लौंग

जनवरी/फ़रवरी 2009

भारत की तीर्थयात्रा: मार्टिन लूथर किंग, जू.

नई दिल्ली पहुंचने पर किंग दंपत्ति का फूलमालाएं पहनाकर स्वागत किया गया। फोटोग्राफ: रंगास्वामी सतकोपन ©.पी.-डब्ल्यू.डब्ल्यू.पी.

वर्ष 1959 के शुरुआती महीनों तक मार्टिन लूथर किंग, जूनियर अमेरिका के दक्षिणी राज्य अलाबामा में बसों और व्यवसाय के सफल मोंटगोमरी बहिष्कार का नेतृत्व कर चुके थे। वह, उनके साथी और अनुयायी गिऱफ्तार किए गए, जेल में रखे गए, अपराधी घोषित किए गए, जुर्माना हुआ, धमकियां मिलीं और और मारपीट जैसे अनुभवों से गुजरे। 1956 में उन्होंने अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय पर जश्न मनाया था, जिसमें कहा गया था कि नस्ल के आधार पर सार्वजनिक संसाधनों का निर्धारण असंवैधानिक है। नस्लभेद के दिन लद रहे थे लेकिन अभी वह खत्म नहीं हुआ था।

अन्यायपूर्ण कानूनों का अहिंसक प्रतिरोध करते, उन्हें दोयम दर्जे के नागरिकों के तौर पर व्यवहार करने वाले मनमाने कानूनों से सहयोग करने से इनकार करते अफ्रीकी-अमेरिकियों के बारे में छप रहे लेख और चित्र भारतीयों को बहुत आकर्षित करते क्योंकि उन्होंने भी इन्हीं उपायों से 12 बरस पहले आजादी पाई थी।

यह समानता किंग भी देख पा रहे थे। जून 1956 में नेशनल एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ़ कलर्ड पीपल के राष्ट्रीय अधिवेशन को संबोधित करते हुए उन्होंने उल्लेख किया कि ‘‘आत्मा के बल से’’ मोहनदास गांधी ‘‘अपने देशवासियों को ब्रिटेन की राजनीतिक दासता, आर्थिक शोषण और अपमान से मुक्त करवा पाए।’’

स्थानीय अधिकारियों पर भेदभावपूर्ण कानून वापस लेने के लिए अश्वेत अमेरिकियों द्वारा आयोजित मोंटगोमरी बहिष्कार एक व्यापक, बहु-राज्यीय अहिंसक, चर्च आधारित अभियान था जिसने  लगभग दो सदियों से अफ्रीकी-अमेरिकियों को संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों से वंचित रखने वाले कानून, परंपरा और पूर्वाग्रह पर घातक प्रहार किया था।

इसके बाद भी कई बहिष्कार, कूच, धरने, चर्च सभाएं, प्रार्थना सभाएं हुईं, बहुतेरे परिवारों को अपने जलते घरों से जान बचाकर भागना पड़ा था, उन्होंने डर से जागते बैठे कई रातें बिताईं, स्त्रियों-बच्चों-पुरुषों को मारपीट और अवमानना झेलनी पड़ी, उन्हें नौकरियां नहीं दी गईं। उन्हें मतदान, निर्बाध रूप से सड़कों पर घूमने, अच्छे विद्यालयों में पढ़ने, सार्वजनिक पुस्तकालय का उपयोग करने, रेस्तरां में खाने, पार्क में बेंच पर बैठने, सार्वजनिक शौचालय का उपयोग करने और सार्वजनिक नल से पानी पीने से वंचित रखा गया।

अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन का संदर्भ भारत से स्पष्ट रूप से जुड़ता था जहां दलित और ‘‘नीची जातियों ’’ में जन्म लेने वाले लोग सदियों से उसी तरह का दमन झेलते आए हैं जैसा राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की दासता मुक्ति घोषणा द्वारा दास प्रथा का अंत कर दिए जाने के बाद से अफ्रीकी-अमेरिकी झेल रहे थे। पूर्ण नागरिक होने के बाद भी, विशेष रूप से दक्षिणी राज्यों में, अफ्रीकी-अमेरिकी समुदाय के लोगों से अपमानजनक व्यवहार, गैरकानूनी भेदभाव और उन्हें अपने अधिकारों से वंचित  किया जाना आम बात थी। इसके प्रतिरोध की कीमत उन्हें कई बार अपनी जान देकर चुकानी पड़ती थी। जैसा कि भारत में जाति प्रथा के संदर्भ में हुआ और जैसा कि संसारभर में होता है कि लोगों को अपनी जाति, परिवार, नाम या कबीले के कारण कानूनों के लागू हो जाने के बाद भी भेदभाव झेलना ही पड़ता है। अफ्रीकी-अमेरिकियों से भेदभाव का व्यवहार भी चलता ही रहा- कानूनों पर पूरी तरह अमल में दशकों लग जाते हैं। दमनकारी लोगों के हृदय परिवर्तन में कितना समय लगेगा? शायद शताब्दियां।

किंग और उनके साथी वास्तविकतावादी थे। वह जातने थे कि यह कितना मुश्किल था और कितना लंबा समय लग सकता था। लेकिन वे बहादुर, धैर्यवान और शांत बने रहे- हिंसक प्रताड़ना से लोगों की जान ले लिए जाने, घरों में आग लगाए जाने, और चर्चों पर बम फेंके जाने की घटनाओं के बावजूद। वाशिंगटन,डी.सी. में 28 अगस्त 1963 के किंग के संबोधन में उनकी आस्था झलकती है, ‘‘मेरा सपना है कि मेरे चार बच्चे एक दिन एक ऐसे राष्ट्र में जी रहे होंगे जहां उनका मूल्यांकन उनकी चमड़ी के रंग नहीं, उनके चरित्र के तत्व के आधार पर होगा।’’ उस सपने में कहीं यह भी निहित है कि कभी कोई अफ्रीकी-अमेरिकी अमेरिका का राष्ट्रपति होगा। लेकिन बराक ओबामा की राष्ट्रपति के रूप में कल्पना तो किंग ने भी नहीं की होगी- किंग की मृत्यु के समय केन्याई पिता और श्वेत अमेरिकी मां की संतान ओबामा कुल छह बरस के थे और इंडोनेशिया में रह रहे थे। लेकिन आज 40 बरस बाद, किंग के बच्चों के जीवनकाल में ही वह अमेरिका के राष्ट्रपति बन चुके हैं।

लेकिन 1959 में कुछ लोगों का सपना था कि किंग अमेरिका के पहले अफ्रीकी-अमेरिकी राष्ट्रपति बनेंगे। उनकी वक्तृता कला, नेतृत्व क्षमता, रणनीतिक नियोजन, साहस और मैत्रीभाव ने उन्हें संसारभर में जनसाधारण से लेकर महान नेताओं तक के आकर्षण का विषय बना दिया था। ऐसे ही एक महान नेता थे भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू।

1956 में अपनी संक्षिप्त अमेरिका यात्रा के दौरान नेहरू ने कहा था कि उनकी इच्छा किंग से मिलने की थी। भारतीय प्रतिनिधियों और भारत में अमेरिकी राजदूत चेस्टर बाउल्स ने किंग की भारत यात्रा की दिशा में प्रयास किए।

कैलिफोर्निया में स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी के क्लेबॅर्न कार्सन द्वारा संपादित ‘‘द अॅटोबायग्राफी ऑफ़ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर’’ के अनुसार किंग ने बताया ‘‘मोंटगोमरी बहिष्कार के दौरान अंहिंसक सामाजिक परिवर्तन की हमारी विधि के प्रेरणास्रोत भारत के गांधी थे। जैसे ही बसों में भेदभाव के मुद्दे पर हमें विजय मिली, मेरे कुछ मित्रों ने कहा: तुम भारत जाकर महात्मा का काम क्यों नहीं देख आते, तुम तो उनके बहुत प्रशंसक हो?’’

अन्तत: किंग, उनकी पत्नी कोरेट्टा और किंग के जीवनीकार अलाबामा स्टेट कॅलेज के प्राध्यापक लॅरेंस रेड्डिक लगभग एक महीने के लिए भारत आए। उड़ान संबंधी समस्याओं के कारण वह 9 फरवरी, 1959 को बंबई में उतरे और ताजमहल होटल में रात गुजार कर अगले दिन दिल्ली के पालम हवाई अड्डे के लिए निकल पड़े- दो दिन की देरी से।

एक तरह से कहा जा सकता है कि इस घटना की पृष्ठभूमि बरसों पहले तैयार हो चुकी थी जब अटलांटा, जॉर्जिया के मोरहाउस कॅलेज के किशोर छात्र मार्टिन लूथर किंग, जूनियर ने अपने मुख्याध्यापक बेंजामिन एलाया मेज़ के मार्गदर्शन में पहली बार गांधी का लिखा साहित्य पढ़ा। गांधी फाउंडेशन, यूएसए के एच.वी. शिवदास ने लिखा है, ‘‘मेज़ भारत की यात्रा से बहुत से अफ्रीकी-अमेरिकियों की तरह गांधी के शिष्यके रूप में लौटे थे, किंग के जीवन पर उनका बड़ा प्रभाव रहा।’’

किंग ने लिखा है कि भारत यात्रा पर निकलते हुए रेड्डिक ने उन्हें बताया था कि मेरी असली परख तब होगी जब गांधी को करीब से जानने वाले लोग मुझे देखेंगे, मुझ पर और मोंटगोमरी आंदोलन पर अपना फैसला देंगे।

उन्होंने अपने भावी, तथाकथित तूफानी दौरे के बारे में लिखा कि ‘‘वह हमारे जीवन का सबसे सघन और आंखें खोल देने वाला अनुभव था।’ यात्रा करते हुए उन्होंने हजारों लोगों से बातें की, लोगों ने उनसे अॅटोग्राफ  लिए, गांव में गरीब के झोंपड़े से लेकर महलों तक में उनका भावभरा स्वागत हुआ। उन्होंने कहा कि मैंने जितने भाषण दिए, उतना ही मेरी पत्नी ने गाया।’’

किंग की यात्रा की व्यवस्था गांधी नेशनल मेमोरियल और द अमेरिकन फ्रेंड््स सर्विस कमिटी (क्वेकर नाम का एक शांतिवादी ईसाई संप्रदाय) ने मिल कर की थी। नई दिल्ली स्थित क्वेकर सेंटर के निर्देशक जेम्स ई.ब्रिस्टल पूरी यात्रा में किंग के मार्गदर्शक के रूप में साथ रहे। भारत सरकार उनकी मेजबान नहीं थी लेकिन नेहरू ने उनका स्वागत करते हुए उन्हें पत्र लिखा और भारत में बीती उनकी दूसरी रात उन्हें रात के खाने पर निमंत्रित किया। प्रधानमंत्री ने तो उससे पहली रात ही उनके लिए रात्रिभोज की व्यवस्था की थी लेकिन कोहरे के कारण किंग की उड़ान दिल्ली देर से पहुंची, नेहरू द्वारा रात्रिभोज अगले दिन करने से प्रोटोकॉल व्यवस्था संभालने वाले परेशानी में फंस गए थे।

10 फरवरी का दिन स्वागत समारोहों और पत्रकार वार्त के नाम रहा जहां किंग ने कहा, ‘‘दूसरे देशों में मैं पर्यटक के रूप में जाता हूं, भारत में मैं तीर्थयात्री हूं।’’ प्राप्त विवरणों से पता चलता है कि नेहरू के साथ रात्रिभोज के दौरान बिताए चार घंटे काफी महत्वपूर्ण थे- अपने दौर के महत्वपूर्ण मुद्दों पर किंग और नेहरू के आधारभूत स्तर पर मतभेद थे जिन पर विश्व समाज में आज भी मतभेद बने हुए हैं।

भारत में बड़े पैमाने पर गरीबी को देखकर किंग चौंके थे। इसे याद करते हुए किंग ने बाद में कहा, ‘‘हम जहां भी गए लोगों की भारी भीड़ दिखी…। ज़्यादातर लोग गरीब थे, उनका पहनावा भी वैसा ही था। बंबई जैसे शहर में पांच लाख से भी अधिक लोग- अकेले, बेरोज़गार, सड़कों पर रात बिताते हैं।’’ हवाई अड्डे से अपने आलीशान होटल तक पहुंचते हुए उन्होंने जो देखा, उसने उन्हें बहुत विचलित किया। अपने संस्मरण में कोरेट्टा स्कॅट किंग ने लिखा, ‘‘कचरे के डिब्बों में खाना ढूंढते सिर्फ गंदी लंगोटी पहने कृशकाय लोगों को देखकर मेरे पति बहुत विचलित हुए। ऐसी खिन्न कर देने वाली गरीबी तो हमने अफ्रीका में भी नहीं देखी थी।’’

इन दृश्यों को देखने से पहले भी, अफ्रीका की यात्रा के बाद से किंग विशेष रूप से उपनिवेशवादी शासनों की गुलामी से आज़ाद हुए बहुत से देशों के सामने खड़े प्रश्नों को लेकर चिन्तित थे- संसाधनों का उपयोग कैसे किया जाएं; परंपरागत शिल्पों को प्रोत्साहन दिया जाए या विशाल कारखाने खड़े किए जाएं?

किंग विशेष रूप से विकासशील देशों द्वारा बेशकीमती राष्ट्रीय संपदा का उपयोग सेनाएं खड़ी करने और हथियारों की खरीद के लिए करने को लेकर बहुत चिन्तित रहते थे। नई दिल्ली में 9 मार्च को अपनी अंतिम पत्रकार वार्ता में उन्होंने भारत का आह्वान किया कि वह निरस्त्रीकरण कर के संसार के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करे। उन्होंने कहा, ‘‘भारत ने पहले भी संसार को दिखाया है कि राष्ट्र की स्वतंत्रता अहिंसक ढंग से प्राप्त की जा सकती है, शायद एक बार फिर (भारत को) पहल कर के संसार से निरस्त्रीकरण का अनुरोध करना होगा, और अगर कोई और देश उसका साथ देने को आगे न आए तो उसे एकपक्षीय निरस्त्रीकरण करना चाहिए। ऐसा कदम महात्मा की भावना का महान प्रदर्शन तो होगा ही, बाकी संसार के लिए भी प्रेरणा बनेगा।’’ इस सुझाव में वैसे तो विनोबा भावे के उद्गारों की अनुगूंज सुनाई देती है लेकिन अपने संदर्भ में यह दूसरे विश्वयुद्घ की शुरुआत के समय से ब्रिटिश लोगों और यहूदियों को लिखे महात्मा गांधी के उस खुले पत्र की ही तरह चौंकाने वाला है जिसमें उन्होंने उनसे अनुरोध किया था कि भले ही शत्रु उन्हें मार डाले या उन पर विजय पा ले, वह युद्घ में शामिल न हों। लेकिन किंग एक मुद्दे पर बिल्कुल स्पष्ट थे- सविनय अवज्ञा को प्रतिरोधहीनता मानने की गलती न की जाए।

कुछ अर्सा पहले टाइम्स ऑफ़ इंडिया में अपने लेख में क्लेबॅर्न कार्सन ने लिखा कि 10 फरवरी 1959 की उस शाम नेहरू से चर्चा करते हुए किंग को इल्म नहीं रहा होगा कि ‘‘भारत का महत्वाकांक्षी परमाणु कार्यक्रम (जिस पर उन दिनों देश के शोध बजट का एक तिहाई खर्च हो रहा था) किसी दिन आणविक हथियार तैयार कर पाएगा।’’

भारत की यात्रा पर रवाना होने से कुछ ही दिन पहले न्यू यॉर्क में वार रज़िस्टर्स लीग को संबोधित करते हुए किंग ने कहा था, ‘‘एक ऐसे सन्दर्भ में सामाजिक न्याय स्थापित कर पाने का आखिर क्या मूल्य रह जाएगा जहां सभी लोग, नीग्रो और गोरे, कुल मिलाकर स्ट्रांशियम 90 के विकिरण या परमाणु युद्घ में मारे जाने को स्वतंत्र हो?’’

एक साक्षात्कार में कार्सन ने स्पैन को बताया, ‘‘नेहरू के साथ रात्रिभोज करते हुए किंग को शायद आभास हो चुका था कि नेहरू उनकी तरह नहीं सोचते। आज हम जानते हैं कि भारत अपना परमाणु कार्यक्रम शुरू कर चुका था, वह चीन को एक खतरे के रूप में देख रहा था। अपनी यात्रा के समाप्त होने तक वह इस मुद्दे पर गांधी के विचारों को और अधिक जानने के लिए भारत आए थे, भारत से लौटने तक वह प्रमुख गांधीवादी बन चुके थे।’’

‘विद किंग थ्रू इंडिया’ में किंग की भारत यात्रा के अपने वितरण में रैडिक ने लिखा कि नेहरू ने माना था कि ‘‘एक व्यक्ति और गांधी के अनुयायी के तौर पर मैं जीवन के सभी पक्षों में अहिंसक प्रतिरोध का पक्षधर हूं- लेकिन अहिंसा के सिद्घांत पर न चल रहे संसार में एक राष्ट्र प्रमुख के तौर पर उस राह पर बहुत दूर तक जाना गलती ही होगी।’’

इस पर टिप्पणी करते हुए कार्सन ऐसा करने वाले केवल एक ही देश का नाम याद कर पाए, कोस्टारिका। वह कहते हैं, ‘‘मुझे लगता है कि अहिंसा उस तरह के विचारों में से है जिन्हें सब चाहते हैं कि दूसरे अपना लें, लेकिन खुद इन्हें अपनाना कठिन मानते हैं। खासतौर पर तब जब हमें लगता है कि हमारे पास ऐसा कुछ है जिस पर दूसरों की निगाह हो सकती है।’’

कार्सन द्वारा संपादित किंग के लेखों और भाषणों के संग्रह ‘अॅटोबायॅग्राफी’  में कार्सन कहते हैं कि किंग का विचार था कि भारत में उन दिनों दो तरह की विचारधाराएं समानान्तर रूप से चल रही थीं- जीवन स्तर उठाने के लिए जल्द से जल्द आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण, और दूसरी यह कि पश्चिमीकरण के साथ भौतिकतावाद, गलाकाट प्रतिस्पर्धा और जबर्दस्त व्यक्तिवाद जैसी बुराइयां भी आएंगी जिनके चलते भारत की आत्मा खो जाएगी।

किंग को लगता था कि नेहरू इन दो ध्रुवों के बीच की राह पर चलने का प्रयास कर रहे थे। उन्होंने याद किया कि उनकी चर्चा के दौरान नेहरू ने कहा कि उन्हें लगता है कि ‘‘देश के लिए कुछ चीजें केवल बड़े और भारी उद्योग ही कर सकते हैं।’’ और राज्य की निगरानी (इससे हो सकने वाली) असुविधाओं से बचा सकती है। लेकिन इसके साथ ही नेहरू कताई-बुनाई और अन्य कुटीर उद्योगों के विस्तार के भी समर्थक थे ताकि ‘‘स्थानीय समुदाय की आर्थिक स्वावललंबिता और स्वायत्तता भरसक बची रह पाए।’’ 50 बरस पुराना यह विमर्श आज भी उतना ही संगत है।

चर्चा में उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश में दलितों को प्राथमिकता देने सहित जातिभेद को खत्म करने के भारत के प्रयासों का भी जिक्र छिड़ा (बाद में यह नीति अमेरिका में अफ्रीकी-अमेरिकियों के सन्दर्भ में अपनाई गई और इस पर भारी विवाद चला)। नेहरू ने स्पष्ट किया, ‘‘यह सदियों से हमारे समाज के इस अंग पर हुए अन्याय के प्रायश्चित का हमारा ढंग है। बाद में इस सिद्घांत को अपनाते हुए अमेरिका में ‘सकारात्मक कार्रवाई’ के नाम से सामाजिक न्याय की ऐसी ही प्रक्रिया चली।’’

किंग ने प्रसन्नता व्यक्त की कि भारतीय नेतृत्व ने ‘‘अपनी नैतिक सत्ता का प्रयोग’’ दलितों से भेदभाव समाप्त करने के उद्देश्य से बने कानूनों के समर्थन में किया। अमेरिका लौटने पर वह इन प्रयासों का उल्लेख बड़े उत्साह से करते थे, उन्हें जैसे विश्वास था कि कानून और सरकार का सहयोग जातिगत भेदभाव को समाप्त किए दे रहा है। ज्ञान पब्लिशिंग हाउस द्वारा एक वर्ष पहले प्रकाशित ‘ह्यूमन राइट्स फ्रॉम द दलित पर्सपेक्टिव’ के लेखक हेनरी त्यागराज कहते हैं, निचली जातियों की सहायता के लिए चलाई जा रही ‘‘ग्राम परियोजनाओं की प्रशंसा करने वाले किंग को यह देखकर खासा सदमा लगता कि जाति प्रथा और उस पर आधारित भेदभाव की संस्कृति 50 बरस बाद भी फलफूल रही है।’’

त्यागराज ने स्पैन को बताया,‘‘1960 के दशक में अमेरिकी अश्वेतों के साथ किया जाने वाला व्यवहार, उन पर थोपी जाने वाली हिंसा, और उनकी पीड़ा की तुलना अस्पृश्यों से किए जाने वाले व्यवहार जैसी ही थी। अपने अध्ययन के आधार पर मेरा मत है कि अस्पृश्यता का मूल नस्लवाद में ही है, भारत में इसकी विशेषता बस यही है कि इसे धार्मिक अनुमति प्राप्त है। अपने तर्क को पुष्ट करने के लिए त्यागराज गांवों में हरिजनों और सवर्णों के अलग-अलग मुहल्लों की बात करते हैं और ध्यान दिलाते हैं कि जाति और रंग के आधार पर मकान किराए पर देने या बेचने से इनकार करने को गैरकानूनी घोषित करने से पहले अमेरिका में यही स्थिति अश्वेतों की थी।’’ वह बताते हैं, ‘‘स्कूलों में दलित बच्चों को सवर्ण बच्चों से अलग बैठाया जाता है, वह अलग-अलग खेलते हैं, अलग-अलग नलों से पानी पीते हैं। ग्रामीण इलाकों में जमींदार युगों से चले आ रहे भेदभावपूर्ण रीतिरिवाजों को कसकर थामे हैं जिनका उल्लंघन करने पर प्राणांतक प्रताड़ना की जाती है।’’ किंग और उनके युग के अन्य अफ्रीकी-अमेरिकी कहते कि यही तो अमेरिका के दक्षिण राज्यों में भी हो रहा है। 1960 के दशक तक वहां सार्वजनिक नलों और शौचालयों पर ‘श्वेत’ और ‘अश्वेत’ की पट्टिकाएं ठुकी रहती थीं।

भारत की अपनी यात्रा के दौरान घटी एक घटना से किंग के लिए यह समानता पूरी तरह स्पष्ट हो गई – दलित बच्चों के एक स्कूल के प्राधानाध्यापक ने किंग का परिचय करवाते हुए कहा, ‘‘यह अमेरिका के हमारे अछूत भाई हैं।’’ छह बरस बाद अमेरिका में एक चर्च में यह अनुभव सुनाते किंग ने कहा, ‘‘मैं पलभर के लिए सन्न रह गया कि मुझे अछूत कहा जा रहा है। लेकिन फिर मैं सोचने लगा- अमेरिका में मेरे 2 करोड़ बहन-भाई आज भी हमारे देश के बड़े शहरों की मलिन बस्तियों में जी रहे हैं, उनके स्कूल अच्छे नहीं हैं, मनोरंजन की सुविधाएं नहीं हैं। और तब मैंने खुद से कहा, ‘हां मैं अछूत हूं।  और अमेरिका का हर अश्वेत अछूत है।’’

भारत के छोटे-छोटे गांवों में किंग ने पाया कि कई लोग बहुत ही अमानवीय परिस्थितियों  में जी रहे हैं। ‘ऑटोबायॅग्राफी’  के अनुसार बहुत जल्द उन्हें पता चला कि ये ही अछूत हैं- ये लोग जो सबसे कड़ी मेहनत करते हैं, इन्हें खुद भारतीयों ने भी पददलित किया है।

गांधी ने इस व्यवस्था को असहनीय पाया और उन्होंने फैसला किया कि वह सदा इस का विरोध करेंगे। किंग ने कस्तूरबा गांधी की अनिच्छा के बावजूद गांधीजी द्वारा एक अछूत बच्ची को अपनी बेटी के तौर पर अपनाने और मंदिरों में अछूतों को प्रवेश दिलाने के लिए सफल अनशन करने की याद दिलाते हुए कहा, ‘‘अपने जीवन और आचरण से उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि अस्पृश्यता के लिए जगह नहीं है।’’

इलिनॉय, शिकागो की इंटरफेथ यूथ कोर के कार्यकारी निदेशक ईबू पटेल कहते हैं, 50 बरस बाद भी जातिवाद और नस्लवाद के  अस्तित्व का बना रहना हताशा का कारण नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे आज पहले से कहीं अधिक ‘एक साझे लक्ष्य, एक साझे हित के लिए, भेदभावों के पार हाथ बढ़ाने वाले व्यक्तियों के उज्जवल उदाहरणों’ की आवश्यकता को रेखांकित करन वाले कारक के रूप में देखा जाना चाहिए। पटेल ने स्पैन को बताया, ‘‘हम इसे भले ही अब तक प्राप्त न कर पाए हों लेकिन किंग जानते थे कि ‘नैतिक जगत की चाप बहुत लंबी भले ही हो, वह मुड़ती न्याय की ओर ही है’ गांधी और किंग अपने श्रम के परिणामस्वरूप हुए सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों का लाभ भले ही न पा सके  हों, वे आज भी न्याय के पथ को प्रदीप्त करते हैं।’’

किंग दंपति ने भारतीय अनुभव को भरपूर जिया- सुबह-सुबह जल्दी उठना और फिर भी गंतव्य तक पहुंचने में देरी, ज़रूरत पड़ने पर फर्श पर बैठकर पत्तल या केले के पत्ते पर भोजन करना, गांवों में पैदल घूमना, छात्रों और शिक्षाकर्मियों से संवाद, केरल में तैराकी, ताजमहल का दर्शन, गया और शांति निकेतन का समृद्घ सांस्क़तिक अनुभव, भारत के धुर दक्षिणी छोर पर कन्याकुमारी के सागर तट पर एक ही समय पर चन्द्रोदय और सूर्यास्त का दृश्य। अंतिम अनुभव ने तो किंग के मन पर ऐसा गहन प्रभाव प्रभाव डाला कि बाद में उन्होंने इससे  प्रेरित होकर अपना उपदेश भी लिखा।

किंग की तीर्थयात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव था साबरमती आश्रम में निवास जहां गांधी ने देश की स्वतंत्रता और एक नई सामाजिक व्यवस्था की दिशा में काम करते 18 बरस बिताए थे। किंग की यात्रा में साथ रहे स्वामी विश्वानन्द ने गांधी नेशनल मेमोरियल फंड द्वारा प्रकाशित अपने संस्मरण में लिखा है, ‘‘आश्रम में घूम कर 600 आश्रमवासियों, ज़्यादातर हरिजन, के साथ प्रार्थना सभा में शामिल होकर किंग दंपत्ति बहुत अभिभूत थे। इस यात्रा से उन्हें एक नई शक्ति का अनुभव हुआ।’’

किंग को हुई प्राप्ति उस अन्याय और जातिवाद के खिलाफ  उनके संघर्ष से स्पष्ट हुई जिसे वह अपने देश द्वारा प्राप्त की जा सकने में महानता की राह में बाधा मानते थे।

अपने देश में स्वतंत्रता के लिए पदयात्रा पर निकले अफ्रीकी-अमेरिकियों को संबोधित करते हुए किंग ने आश्रम में बिताए 1 मार्च 1959 के दिन को याद किया और उन्हें बताया कि गांधी ने जब नमक सत्याग्रह के लिए 322 किलोमीटर लंबा दांडी कूच शुरू किया तो उनके साथ सिर्फ कुछ ही लोग थे। लेकिन जब वह दांडी के समुद्र तट पर पहुंचे तो लाखों लोग उनके साथ हो चुके थे। उन्होंने अफ्रीकी-अमेरिकी धर्मोपदेशकों की श्रोताओं को रोमांचित कर देने वाली मर्मस्पर्शी शैली का उपयोग किया : ‘‘और गांधी ने अपने लोगों से कहा: ‘तुम्हें चोट पहुंचाई जाए, तो पलटकर वार मत करो;  वो गोली भी चलाएं, तो गोली मत चलाओ। वो तुम्हें गाली दें, तो पलटकर गाली मत दो। बस अपनी राह चलते रहो। मंजिल तक पहुंचने से पहले, हम में से शायद कुछ को मरना पड़े। मंजिल तक पहुंचने से पहले, हम में से कुछ को शायद जेल में ठूंस दिया जाए- लेकिन हमें बस चलते रहना है।’ और वे चलते रहे…’’



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