जलवायु परिवर्तन के हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी पर पड़ते प्रभाव को इंटरएक्टिव दास्तां के स्वरूप में प्रस्तुत कर लोगों में जागरूकता और कार्रवाई को प्रेरित किया जा सकता है।
अक्टूबर 2021
जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए एक प्रमुख कदम इसके लिए कार्रवाई करने की तत्काल आवश्यकता को लेकर संवाद खाका तैयार करने का है। वर्ष 2019-20 के दौरान अमेरिकी फुलब्राइट-नेहरू एकेडमिक एंड प्रो़फेशनल एक्सीलेंस स्कॉलर रहीं शीला टे़फ्ट जब भारत में आईं तो उन्होंने देखा कि हालांकि भारत में जलवायु परिवर्तन के मसले को खारिज करने वाले लोग बहुत ज्यादा मुखर नहीं थे, लेकिन फिर भी ‘‘बहुत-से युवा प्रौढ़ों समेत ऐसे बहुत लोग थे जो सोचते थे कि जलवायु बदलाव के खतरे की उनके जीवन में कोई प्रासंगिकता नहीं है।’’
टे़फ्ट अपने पत्रकारिता के काम के साथ ही जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य पहल के क्षेत्रों में अपनी दिलचस्पी को साथ में जोड़े हुए है। उन्होंने विज्ञान लेखन और मल्टीमीडिया पत्रकारिता के माध्यम से जन जागरूकता पैदा करने के लिए विद्यार्थियों के साथ कई कार्यशालाएं आयोजित कीं। इन सबका उद्देश्य था भारत की जलवायु वास्तविकता को लेकर अंतर्दृष्टि हासिल करना और उसका समाधान तलाशना। ट़ेफ्ट कहती हैं, ‘‘भारत में मेरा फुलब्राइट लक्ष्य विद्यार्थियों, पत्रकारों और वैज्ञानिकों को मल्टीमीडिया प्रस्तुतियों का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित करने का था जिससे कि वे जलवायु परिवर्तन के मसले पर लोगों के साथ इंटरएक्टिव और गतिशील संवाद कायम कर सकें।’’
इसके लिए टे़फ्ट ने ऐसी दास्तांओं पर फ़ोकस किया ‘‘जो जलवायु के प्रभावों को सशक्त तौर पर व्यक्त कर सकें।’’ खासकर उन्होंने अपने पत्रकारिता विद्यार्थियों को ऐसी वैयक्तिक लघु दास्तां लिखने को प्रेरित किया जिनमें जलवायु बदलाव के चलते लू से ‘‘उनके परिवार प्रभावित हुए और अहमदाबाद विश्व के सबसे गर्म शहरों में से एक बन गया।’’
टे़फ्ट बताती हैं, शुरुआत में विद्यार्थियों ने अलग-थलग कर विवरण लिखा, लेकिन बाद में वे ऐसी चीज़ों के बारे में अपने वैयक्तिक अनुभव लिखने लगे जैसे कि ‘‘समय बिताने के लिए माता-पिता और भाइयों के साथ गर्मियों में अपने पसंदीदा माध्यम क्रिकेट मैच को छोड़ देना, भीषण गर्मी से फसल चौपट हो जाने पर पड़ोसी किसान द्वारा आर्थिक स्थिति खराब होने पर आत्महत्या कर लेना और बेहतर रहन-सहन के लिए दूसरी जगह पर जाने के बारे में पीड़ादायक पारिवारिक चर्चा।’’ इससे विषय को लेकर करीबी संवाद हुआ।
जलवायु परिवर्तन पर लोगों से संवाद के लिए इसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों पर चर्चा करना सबसे बढि़या तरीका है। टे़फ्ट बताती हैं, ‘‘संचार शोधकर्मी कहते हैं कि सेहत संबंधी समाधानों पर फ़ोकस करने से जलवायु पूर्वानुमानों को लेकर ज्यादा सकारात्मकता बनती है, जलवायु की जटिलताएं ज्यादा प्रासंगिक हो जाती हैं और जलवायु के मसले पर राजनीतिक खाई से बचा जा सकता है।’’
टेफ्ट का काम एमॉरी यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी विभाग की वरिष्ठ व्याख्याता के तौर पर शुरु हुआ और फुलब्राइट-नेहरू फेलोशिप के चलते यह आगे बढ़ा। फुलब्राइट-नेहरू स्कॉलर और एल्युमनाई नेटवर्क उनके अनुदान उद्देश्यों पर काम करने में मददगार साबित हुआ। टे़फ्ट भारत में अपने मेज़बान विश्वविद्यालय से इतर भी संवाद में भागीदारी कर पाई। इससे वह जलवायु परिवर्तन पर हिमालयी पत्रकारों के समूह जैसे प्रोजेक्ट से जुड़ पाईं। हांलाकि कोविड-19 के कारण टे़फ्ट को अमेरिका लौटना पड़ा, फिर भी वह एक डिज़ाइनर, अध्यापक और परामर्शक के बतौर द एनर्जी एंड रिसॉर्स इंस्टीट्यूट के युवा पत्रकारों के ऑनलाइन पाठ्यक्रम से जुड़ पाईं। इस पाठ्यक्रम में भागीदारी करने वालों को जलवायु विज्ञान और नीतिगत मसलों और जलवायु संचार की तकनीकी समझ के लिए प्रशिक्षित किया गया। महामारी के दौरान उन्होंने अपने मोबाइल से वीडियो और ऑडियो के माध्यम से जलवायु संवाद को रिकॉर्ड किया और अपने समुदायों में लोगों से नाता जोड़ा।
टेफ्ट इस बात को रेखांकित करती हैं कि भविष्य की ओर देखें तो ‘‘हमारे पास समय कम है और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी का बड़ा काम है जिससे कि पेरिस समझौते के अनुरूप 1.5 डिग्री सेल्सियस तक ताप वृद्धि को रोका जा सके। यह निराश करने वाला परिदृश्य मौजूदा समय में और भविष्य में जलवायु प्रभावों के अनुकूलन पर काफी जोर देता है।’’ जलवायु बदलाव से जुड़ी तबाही और आपदाओं के पहले से ही काफी साक्ष्य हैं और पत्रकारों को इस मसले पर रिपोर्ट करनी होगी कि समुदाय और अर्थव्यवस्थाएं इससे कैसे सामंजस्य बिठाएं। ‘‘आम जनता को जलवायु परिवर्तन से जुड़े मसलों को समझाना संवाद में सबसे मुश्किल और बेहद महत्वपूर्ण काम है।’’
जैसे-जैसे जलवायु बदलाव के प्रभाव तेज़ होते जाएंगे, समाधानों की तलाश और नागरिक सर्वानुमति से मीडिया में दास्तां कहने के तरीकों में बदलाव आएगा। टे़फ्ट कहती हैं, ‘‘कुछ राष्ट्रीय अखबार जलवायु मसले पर कवरेज की गति तय कर रहे हैं। युवा भारतीय पत्रकार बता रहे हैं कि उन रिपोर्टरों के लिए भारत और देश से बाहर प्रकाशन के अवसरों में बढ़ोतरी हो रही है, जो जलवायु से संबद्ध मूल मसलों को समझ रहे हैं, मल्टीमीडिया कौशल हासिल कर रहे हैं और दास्तां बताने की प्रतिबद्धता जाहिर कर रहे हैं।’’ वह कहती हैं, लंबे समय से विश्व के गतिमान अखबार बाज़ारों में से एक ‘‘भारत में अब खबरें ज्यादा मोाबइल फोन पर देखी जा रही हैं, क्योंकि मोबाइल फोन की संख्या में विस्फोटक तेज़ी आई है और खबरें अब वीडियों के साथ ऑनलाइन पाठ्य रिपोर्ट, पॉडकास्ट और अन्य मल्टीमीडिया रिपोर्ट के तौर पर हमसे रूबरू हो रही हैं।’’ इस तरह से अब जलवायु परिवर्तन की दास्तां भी बताई जाएगी और उम्मीद है कि सुनने वालों में सहमति बढ़ेगी।
ट्रेवर एल. जॉकिम्स न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी में लेखन, साहित्य और समकालीन संस्कृति पढ़ाती हैं।
मैं ” स्पैन ” पत्रिका का लगभग 15 वर्ष पुराना पाठक हूं। पहले ये पत्रिका भारत के प्रमुख राज्य मध्यप्रदेश में सभी विधायकों
( Member of legislative assembly ) को निशुल्क उनके घर भेजी जाती थी । मेरे नानाजी भी विधायक ( M L A ) रहे हैं। मुझे उनके घर से ही इस पत्रिका को पढ़ने की रुचि बढ़ी।
मेरे पास इस पत्रिका के पुराने कुछ अंक अब भी रखे हैं।
अब आनलाइन होने से इसको पढ़ना बहुत आसान हो गया।
इसके लिए ” स्पैन ” पत्रिका की पूरी टीम को बहुत धन्यवाद ।
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Amitabh Pandey Journalist
मैं " स्पैन " पत्रिका का लगभग 15 वर्ष पुराना पाठक हूं। पहले ये पत्रिका भारत के प्रमुख राज्य मध्यप्रदेश में सभी विधायकों ( Member of legislative assembly ) को निशुल्क उनके घर भेजी जाती थी । मेरे नानाजी भी विधायक ( M L A ) रहे हैं। मुझे उनके घर से ही इस पत्रिका को पढ़ने की रुचि बढ़ी। मेरे पास इस पत्रिका के पुराने कुछ अंक अब भी रखे हैं। अब आनलाइन होने से इसको पढ़ना बहुत आसान हो गया। इसके लिए " स्पैन " पत्रिका की पूरी टीम को बहुत धन्यवाद । I