एक भारतीय स्कॉलर बता रहे हैं कि वर्ष 1961 में इस महान कवि के शताब्दी जयंती वर्ष को अमेरिका में कितने उत्साह के साथ मनाया गया और साथ ही, टैगौर पर अपने स्मरण शोध के बारे में भी।
मई 1970
रबींद्रनाथ टैगोर। फोटोग्राफ: साभार लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस
हाल ही में अमेरिका में महात्मा गांधी के जन्म शताब्दी समारोहों के आयोजन ने इसी तरह से टैगोर के सम्मान में आयोजित समारोहों की याद ताज़ा कर दी।
अमेरिका मे 1961 में हर कोई रवींद्रनाथ टैगौर के बारे में जानता था। इनमें वे प्रवासी भारतीय भी शामिल थे जो विभिन्न हैसियतों में अलग-अलग अवधि के दौरान अमेरिका में रहे। समूचे अमेरिका में, भारतीय वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, नर्सें, नर्तक, योग विशेषज्ञ और धान की हाइब्रिड किस्म विकसित करने वाले विशेषज्ञ- सभी इस कवि के बारे में सब कुछ जान लेना चाहते थे, साथ ही वे इसके बारे में सबको बताते भी थे। टैगोर के जन्म शताब्दी समारोह, विदेश में रहने वाले भारतीयों के लिए असहयोग आंदोलन और गोल मेज सम्मेलन के दिनों के बाद आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र थे।
पारंपरिक रूप से गैरसाम्राज्यवादी सोच के अमेरिका ने हमेशा ही भारत से संबंधित ऐसे विषयों पर सहानुभूतिपूर्ण रवैया दर्शाया है, जो इससे अधिक विवादास्पद रहे हैं। 1961 में, मुझे यकीन है कि, अमेरिका में भी टैगोर के नाम पर उतनी ही सस्थाएं रही होंगीं जितनी कि उनके अपने देश में। जैसे-जैसे टैगोर की जन्म शताब्दी का मई माह करीब आ रहा था, वैसे-वैसे माहौल और गरमाता जा रहा था, ठीक वैसे ही जैसे कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव से पहले के अंतिम 100 दिनों मे होता है। हर टैगोर सोसायटी दूसरे के साथ होड़ में बड़े और बेहतर सामरोह के आयोजन में जुटी थी।
अमेरिका ने भी वास्तव में उसी गर्मजोशी के साथ, साथ निभाया। दरअसल, अमेरिकी समारोह भी भारतीयों को उसमें शमिल करने या उन्हें बढ़ावा दिए बिना भी उत्साह से परिपूर्ण थे। शायद ही अमेरिका में कोई ऐसा विश्वविद्यालय परिसर हो, वैश्विक दृष्टि वाला साहित्यिक संगठन हो, कोई कला और साहित्य का केंद्र हो या फिर कोई ऐसा शहर हो जहां टैगोर ने सिर्फ एक बार भी यात्रा की हो और वहां उन्हें किसी न किसी रूप में याद न किया गया हो। भाषणों, संपादकीय और विशेष प्रसारणों के अलावा, समारोहों की सबसे खास बात रही टैगोर की स्मृतियों से जुड़े प्रतीक, जो थोड़े समय के लिए ही सही, गुमनामी से बाहर आए। फिलाडेल्फिया में स्ट्रज मूर के उस पत्र का साझा किया गया जो उन्होंने टैगोर को लिखा था। शिकागो में, टैगोर के पहले अमेरिकी प्रकाशन के प्रमाण के रूप में दिसंबर 1912 के पोएट्री के उस अंक के गेली प्रूफ को देखा जा सकता था जिसमें उनकी 6 कविताएं छपी थीं। क्लीवलैंड पब्लिक लाइब्रेरी में एजुकेशन एंड लेज़र की एक प्रतिलिपि प्रदर्शित की गई जो एक ऐसा संस्करण हैं जो बहुत ही कम देखने को मिलता है और कभी-कभी तो टैगोर के ग्रंथों की सूची में भी उसका उल्लेख नहीं मिलता। इसके अलावा भी देश भर में ऐसे अनगिनत उदाहरण मौजूद रहे होंगे जो यह दर्शाते हैं कि टैगोर को इस देश में कितने अच्छी तरह से याद किया गया। न्यू यॉर्क सिटी ने हमेशा की तरह से दूसरों से एक कदम आगे बढ़ते हुए एक दिन के लिए टाइम्स स्क्वैयर का नाम बदल कर टैगोर स्क्वैयर कर दिया। अगर यह एक औपचारिकता थी, तो इसमें कोई औपचारिकता नहीं थी कि थिएटर का शौक रखने वालों के लिए टैगोर के नाटक द किंग ऑफ द डार्क चैंबर का प्रदर्शन चार ह़फ्तों के लिए निर्धारित किया गया था लेकिन दरअसल चला वह करीब चार महीनों तक।
मैं अगस्त 1960 से फिलाडेल्फिया में था और मुझे याद है कि किस तरह से टैगोर सोसायटी के रूप में भारतीयों का एक समूह हमेशा तैयार मिलता था। हालांकि, यह पेन्न्सिलवैनिया से जुड़ी नहीं थी, फिर भी इसके सदस्यों में बहुसंय पेन्सिलवैनिया में पढ़ने वाले या काम करने वाले भारतीय थे। यहां सोसायटी एक तरह से दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय अध्ययन विभाग के स्वाभाविक विस्तार के रूप में देखी जा रही थी जिसने स्थायी अध्यक्ष के रूप में प्रोफेसर डब्ल्यू. नॉर्मन ब्राउन के साथ अन्य सुविधाएं भी प्रदान कीं।
उदाहरण के लिए, विभागीय लाइब्रेरी सोसायटी के लिए प्रचार कें द्र की तरह से काम करती थी और विभाग के गैरभारतीय विद्यार्थी बैठकों में अच्छा खासा कोरम बना देते थे। इसके अलावा विभाग में आने वाली हस्तियों को सोसायटी के सदस्यों को संबोधित करने के लिए राजी कर लिया जाता था। ऐसे लोगों में डॉ. जॉन मथाई से लेकर राजा राव जैसी शख्सियतें तक शामिल थीं।
जब मैं वहां पहुंचा, सोसायटी की तरफ से शाम को आयोजित समारोह के लिए हर कोई वहां टिकट बेचने के काम में मशगूल दिखा (बहुत लोग खरीद भी रहे थे)। यूनिवर्सिटी का इरविन ऑडिटोरियम पूरी तरह से भरा हुआ था जहां भास्कर- नाम की एक नर्तकी ने नृत्य की विभिन्न विधाओं की श्रृंखला को प्रस्तुत किया। इनमें से कुछ एकल थी तो कुछ में दूसरी दो लड़कियां भी साथ थीं। भास्कर को नई दिल्ली के मुकाबले न्यू यॉर्क में ज्यादा जाना जाता था। मई 1961 मे सोसायटी ने समारोहों के आयोजन के लिए पर्याप्त पैसा एकत्र कर लिया था जिसके चलते मृणालिनी साराभाई का जानदार प्रदर्शन देखने को मिल सका, बतौर पेंटर टैगोर के बारे में अतुलनीय डॉ. स्टेला का आख्यान (कलर्ड स्लाइड के साथ) और साथ ही प्रोफेसर टी. डब्ल्यू. क्लार्क (लंदन से पेन्सिलवैनिया मे आने वाले विजिटिंग प्रोफेसर) का शानदार संबोधन सुनने को मिला। उन्होंने समारोह में भारतीयों को बगलें झांकने को मजबूर कर दिया जब उन्होंने टैगोर की कविता को बंगाली में पढ़ा और यह कहते हुए अपना संबोधन समाप्त किया कि टैगोर को पढ़ने के क्रम में दुनिया में हर किसी को बंगाली पढ़ना चाहिए।
अमेरिका मे टैगोर शताब्दी समारोहों में मेरा योगदान एक तरह से थोड़ा अलग किस्म का था- मुझे 1912 से 1930 के बीच टैगोर की अमेरिका की पांच यात्राओं से संबंधित जानकारियों को संकलित करना था- लेकिन मुझे इस काम को करने में काफी आनंद मिला। यह विषय भी, उदाहरण के लिए, एक तरह से मेरे सुपरवाइज़र ने मुझे पकड़ा दिया था। वे लोग जो अमेरिका में ग्रेजुएट स्कूल का अनुभव हासिल कर चुके हैं, वे इस बात को बेहतर समझ सकते हैं कि यह कितने सौभाग्य की बात थी, क्योंकि जब विषय और सुपरवाइज़र के साथ शोध विद्याथी का मनमाफिक होना आमतौर पर बहुत सूझबूझ से ही संभव हो सकता था, जब विद्यार्थी के सीमित संसाधनों और समय का रणनीतिक इस्तेमाल का मसला हो। मेरा चुनाव, मेरे प्रोफेसर की इस स्वीकारोक्ति का परिणाम था कि जब वह इसी विश्वविद्यालय में अंडरग्रेजुएट विद्यार्थी थे तो वे गीतांजलि की प्रति साथ लेकर ही चलते थे। क्यों और कैसे इसका लेखक इतने ऊंचे मुकाम से नीचे आ सकता है और वह भी इतनी जल्दी? मेरे स्पष्टीकरण पर उन्हें यकीन करने में 10 से 12 महीने लगे। भले ही वह कुछ समय के लिए ही हो।
सामग्री की खोज में मुझे कई जगहों पर जाना पड़ा, जैसे कि शिकागो। एक मित्र के मित्र के मित्र, के जरिए मैंने सुना कि किसी इतिहास के प्रोफेसर की इस विषय में दिलचस्पी थी। मैंने उन्हें लिखा और मुझे उस व्यस्त शिक्षक से अप्रत्याशित किस्म का दोस्ताना प्रत्युत्तर मिला। मुझे उस वक्त इस बात का अहसास नहीं था कि किस्मत से हमें कितनी बड़ा अवसर मिला है। जब मैं शिकागो गया, तो यह सज्जन न सिर्फ मुझे अपने घर ले गए और वहां हमने डिनर किया और उन्होंने हमें बहुत सहजता से टैगोर की 1916-17 की अमेरिका यात्रा से संबंधित प्रेस क्लिपिंग की माइक्रोफिल्म दी। अगर मुझे यह पता होता कि उनके पास ऐसी कोई माइक्रोफिल्म है तो भी शायद मैं उनसे मांग नहीं पाता। लेकिन उन्होंने यह माइक्रोफिल्म मुझे ऐसे सौंप दी मानो वह उनके किसी काम की नहीं थी।
यह वही प्रोफेसर थे जिन्होंने मुझे हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के उन दस्तावेजों की हालिया खरीद के बारे में बताया था जो टैगोर से संबंधित थे। यह ऐसी बात थी जो पेन्सिलवैनिया यूनिवर्सिटी के रिफरेंस सेक्शन में कार्यरत मेहनती महिलाएं भी न बता पातीं। वे आमतौर से इस तरह का आभास देती थी कि उन्हें हर बात की जानकारी है या फिर उन्हें कम से कम इस बात की पुक्ष्ता जानकारी होती है कि कौन सी चीज कहां मिलेगी। मैंने कभी भी उन्हें किसी भी आग्रह के लिए न करते नहीं सुना था, चाहे वह कितनी भी कठिन क्यों न हो। मैंने उनकी फोन पर उस बातचीत को भी सुना था जिसमें कॉलर जुलाई 1846 की किसी तारीख के दिन वाशिंगटन के मौसम के बारे में जानकारी मांग रहा था। रिफरेंस लाइब्रेरियन ने यह नहीं कहा कि आप यह जानकारी मौसम विज्ञानी वाली कीनन से क्यों नहीं मांगते। बल्कि. उसने कॉलर से आधे घंटे में दोबारा फोन करने को कहा ताकि वह उन्हें इस विषय पर कुछ जानकार एकत्र करके दे सके।
लाइब्रेरी में एकमात्र स्थान जहां थोड़ी बहुत मशक्कत झेलनी होती थी, वह था दुर्लभ किताबों और पांडुलिपियों का सेक्शन। शिकागो यूनिवर्सिटी में हार्पर मेमरियल लाइब्रेरी इस मामले में बाहर से देखने के मुकाबले कहीं ज्यादा अभेद्य थी। जिन इतिहास के प्रोफेसर की बात मैने पहले की थी, उनके कहने के बाद ही हैरियट मनरो* कलेक्शन के कुछ मौलिक पत्रों से रूबरू हो पाया। इसलिए जब मैं हॉर्वर्ड गया तो, तब मैंने तमाम परिचय पत्रों और ऐसे ही दूसरी चीजों के जरिए खुद को ताकतवर बनाया ताकि वहां पर किसी दिक्कत की स्थिति में उसे बेहतर तरीके से झेला जा सके। लेकिन राहत की बात यह रही कि, मुझे अमेरिका में टैगोर के पत्रों के इस महत्वपूर्ण समूह तक पहुंचने के लिए सिर्फ एक रजिस्टर पर दस्तखत करने पड़े। यहां तक कि मैंने यह भी नोटिस नहीं किया कि मेरे अंदर दाखिल होते ही दरवाजा अपने आप बंद हो गया और बाहर निकलना तभी संभव था जबकि वहां डेस्क संभाल रही लड़की छिपे मैकेनिज्म से इसमें मदद करती।
इस तरह की नफासत न्यूयॉर्क पब्लिक लाइब्रेरी के दुर्लभ पुस्तकों के सेक्शन में भी नहीं थी। यहां पर भीतर जाने के लिए आपको लोहे के एक दरवाजे पर अपना विवरण देना होता था और आपके परिचय से संतुष्ट होने पर आपको भीतर लेकर दरवाजा बंद हो जाता था। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि किसी को सिगरेट पीने के लिए भवन से बाहर जाना पड़ सकता है उन्होंने निश्चित रूप से इन दरवाजों मे तेल डाला होगा ताकि उन्हें खोलने में आसानी हो सके। मैंने यहां काम करते हुए दो दिन बिताए थे।
सिगरेट पीने वालों के नजरिए से पेन्सिलवैनिया की नई लाइब्रेरी आदर्श है। यह सिर्फ फायरप्रूफ होने का दावा ही नहीं करती बल्कि आपको इस भवन के भीतर हर कहीं सिगरेट पीने की अनुमति होती थी। इसके अलावा, यह पूरी तरह से वातानुकूलित भी थी। इसलिए फिलाडेल्फिया की पसीने भरी गर्मी में भी ग्रेजुएट विद्यार्थियों के लिए कोई परेशानी नहीं थी। हां पुराने दिनों के लोग पुरानी लाइब्रेरी और उसके गोथिक आर्किटेक्चर और सेंट्रल हीटिंग प्लांट को जरूर याद करते, जो तक रीबन उतना ही पुरानी थी जितना कि वाईकिंग्स। रीडिंग रूम में झपकी लेना भी असंभव था क्योंकि वहां मौजूद पाइपों से समय-समय पर पिस्तौल से निकली गोली की तरह से आवाज होती रहती थी। इसके अलावा, वह पूरा स्थान पढ़ाई और पीढियों की विद्वता को समर्पित था और हर किसी के लिए इतनी गुंजाइश रखता था कि वह अपनी पढ़ाई को संजीदगी से ले सके।
जो जानकारियां मुझे चाहिए थीं, उसके लिए मुझे 1912 तक के अखबारों को खंगालना पड़ता। न्यूयॉर्क टाइम्स के साथ कोई समस्या नहीं थी क्योंकि उसका इंडेक्स था और वह माइक्रोफिल्म पर भी था। पूर्वी तट के दूसरे अखबार न्यूयॅर्क पब्लिक लाइब्रेरी की एनेक्सी में उपलब्ध थे। खड़े होकर या फिर बैठ कर अखबार पढ़ना आसान था, और कोई भी इन पुराने पड़ चुके पृष्ठों को सम्मान के साथ पलटता, पुराने पड़ चुके कागज के साथ ही, अतीत की यादों के चलते भी। यहां हमने यूरोप में युद्ध के बारे में पढ़ा क्योंकि अमेरिकियों ने तब ऐसा किया था, ठीक वैसे ही जैसे कि हम भारतीय अखबारों में वियतनाम के बारे में पढ़ते हैं, जो हमेशा एक टीस देने वाली समस्या रही। विज्ञापन ज्यादातर दिलचस्प होते थे। समकालीन स्थिति के बारे में विज्ञापनों से बेहतर कोई नहीं बता सकता। उसके बाद, लोगों और घटनाओं पर केंद्रित हेडलाइंस होती थी जिनके बारे में दोबारा एक लाइन भी नहीं छपती थी। मुझे इस बात पर वास्तव में अंचभा हुआ कि खबरों की अवधि कितनी कम होती है।
टैगोर ने अपनी यात्रा के दौरान मध्य-पश्चिम और पश्चिम के तटीय क्षेत्रों में भ्रमण किया था। एक समाचार का ठीक-ठीक पता लगाने के क्रम में मैंने थक-हार कर सैन फ्रांसिस्को पब्लिक लाइब्रेरी को पत्र लिख कर उनसे अपने कुछ अनुमानों को पुष्टि करने को कहा। कुछ दिनों के भीतर ही मुझे उस खबर की फोटोस्टैट कॉपी मिल गई जिसके बारे में मैंने उन्हें लिखा था। इससे उत्साहित होकर मैंने दूरदराज के तमाम अखबारों को अपनी जरूरतों के बारे में लिखा और जो कुछ मैं चाहता था वह मुझे मिल गया। अगर मुझे इस आसान रास्ते का पता पहले चल जाता तो शायद मैं अपने शोध के सिलसिले में माइक्रोफिल्मों और पुराने अखबारों के चक्कर में घंटों अपनी आंखों को तकलीफ न देता। सबसे बड़ा अनुग्रह का काम तो ओमाहा, नेब्रास्का की पब्लिक लाइब्रेरी ने किया। टैगोर ने एक बार ओमाहा में भाषण दिया था लेकिन रिफरेंस लाइब्रेरियन ने हमें लिख कर वापस भेजा कि उसे इस बारे में किसी भी अखबार में कोई खबर नहीं मिली है। हालांकि उसने साथ में यह भी लिखा कि, हाल ही में स्टाफ के एक सदस्य सेवानिवृत्त हुए हैं और वह उस समारोह में शामिल हुए थे। उनके संस्मरण में इससे संबंधित जो भी जानकारियां होंगी, वे आपको भेज देंगे। उन्होंने वैसा ही किया, और 40 साल पहले हुई घटना के बारे में बहुत प्रसन्नता के साथ उन्होंने अपने अनुभवों को हमसे साझा किया।
इन गतिविधियों को करने के दौरान मेरा मुख्यालय फिलाडेल्फिया में रहा, और यहां टैगोर की मौजूदगी मुझे बहुत ही अप्रत्याशित जगहों पर देखने को मिली। सीएर्स रोबक स्टोर में एक चेक को भुनाते समय मुझे कैशियर को यह स्पष्ट करना पड़ा कि मैं भारत से हूं। बताने पर उसने मुझसे पूछा कि क्या मैंने टैगोर के बारे में सुना है और उसने गीतांजलि की कुछ लाइनों को सुनाया, जिनके बारे में उसने बताया कि ये लाइनें उसने तब पढ़ीं थी, जब वह स्कूल में थी। गर्मियों के दिनों में मैंने फिलाडेल्फिया इवनिंग बुलेटिन में नौकरी पाने का प्रयास किया। जो सज्जन मेरा इंटरव्यू ले रहे थे, उन्होंने मुझे बताया कि वह मुझे नौकरी तो नहीं दे सकते लेकिन एक नौसिखिया रिपोर्टर के रूप में 1930 में उनका पहला महत्वपूर्ण एसाइनमेंट टैगोर की प्रेस वार्ता में शामिल होना था। इसके चलते, उस व्यक्ति के मन में मुझे नौकरी पर न रखने की जो गलानि थी निकल गई और हमने टैगोर पर लंबी-चौड़ी बात की। इसके बाद एक दूसरी घटना में, मैंने सर विलियम रॉथेंस्टीन द्वारा चित्रित और मैक्स बीरभोम के इंट्रोडक्शन वाला दुर्लभ संस्करण -सिक्स पोर्र्टे्रट ऑफ रवीद्रनाथ टैगोर – की प्रति पुरानी किताबें बेचने वाली दुकान में देखी। मैंने दुकान के भीतर जाकर उसकी कीमत के बारे में जानना चाहा। जो कीमत पता चली, उसे मैं उस वक्त नहीं दे सकता था। मैंने अपने से वादा किया कि मैं उसे लेने वापस आऊंगा। मैंने कुछ दिनों के विलंब की गलती की और जब मैं किताब लेने गया तो वह बिक चुकी थी। उन दिनों कोई और भी टैगोर से संबंधित सामग्रियों का संग्रहण कर रहा था और उसने मुझसे वह मौका छीन लिया।
अगर इससे ऐसा लगता है कि फिलाडेल्फिया में टैगोर के मान-सम्मान को थोड़ा बढा-़चढ़ा कर समझाया जा रहा है तो मुझे इस सिलसिले में हुए सबसे संजीदा अनुभव का जिक्र करना होगा। टैगोर के 71 जन्मदिन पर1931 में उन्हें उपहार स्वरूप दी गई पुस्तक- द गोल्डन बुक ऑफ टैगोर – की प्रति की मुझे तलाश थी। मुझे यह किताब मिली पेन्सिलवैनिया लाइब्रेरी में और वह भी जाने-माने उपन्यासकार थियोडोर ड्रेज़ियर के निजी कलेक्शन के साथ, जिसे उपन्यासकार ने लाइब्रेरी को सौंप दिया था। इस संग्रह क ो पांचवीं मंजिल पर दुर्लभ पुस्तकों के कक्ष में रखा गया था और जब आप वहां बैठेंगे तो उस चीजे को तलाशेंगे जो आपको चाहिए तो आपको ड्रेज़ियर की कांस्य प्रतिमा निहार रही होगी। ड्रेजियर ने टैगोर के सम्मान में इस संस्करण में कुछ योगदान दिया था लेकिन यह मुझे यह नहीं पता था कि ड्रेजियर ने कभी भी उस किताब को खोलने की जहमत नही उठाई। प्रकाशक की स्लिप जिस पर लिमिटेड एडिशन के नंबर लिखे थे और साथ में यह भी लिखा था कि यह कॉप्लीमेंट्री कॉपी है, अब भी वहां थी। सभी पेज अनकट थे और अमेरिका में टैगोर जन्मशती समारोहों में मेरी अहम भागीदारी इसी रूप में रही कि मैंने 30 साल से सुशुप्तावस्था में चल रहे संस्करण की तंद्रा को तोड़ा और समारोहपूर्वक उसके पृष्ठों का अनावरण किया।
वर्तमान में मई के मुकाबले 1961 गए वक्त की बात हो चुकी है और अमेरिका में टैगोर जन्मशती समारोह एक छोर से दूसरे छोर तक उत्साह से मनाए जाने वाले समारोहों का हिस्सा बन चुका है। इससे पहले कि यह निबंध और लंबा हो मुझे यह सवाल जरूर करना चाहिए और जो पूर्वालोकन की दृष्टि से प्रश्न के रूप मे सामने भी आता है कि क्या अमेरिका में लोगों के दिलों में टैगोर को लेकर वास्तविक सम्मान है? इस सवाल के साथ मैं समाप्त करना चाहूंगा क्योंकि यह मेरा खुद का बनाया हुआ नहीं है, न ही मैं इस सवाल का जवाब दे सकता हूं। जिन लोगों को भी सवालों के जवाब चाहिए, उन्हें खुद इसके जवाब ढूंढने चाहिए, बजाए किसी दूसरे के जरिए से। मैं इतना ही कह सकता हूं कि जो लोग हमसे पहले इस दुनिया से चले गए, उनके जीवन का उत्सव मना कर हम अपने ही जीवन को समृद्ध करते हैं। जैसा कि 1961 में टैगोर के साथ हुआ, वैसा ही अब महात्मा गांधी के साथ उनके जन्मशती वर्ष में हो रहा है।
मूलत: प्रकाशित मई 1970
टिप्पणियाँ