फुलब्राइट-नेहरू फेलो जोशुआ आप्टे का ऑस्टिन में यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास का रिसर्च ग्रुप शहरी इलाकों के वायु प्रदूषकों, आबादी से उनके संसर्ग और मानव स्वास्थ्य के बीच के संबंधों को समझने के संयुक्त प्रयासों में भागीदारी कर रहा है।
मई 2019
नई दिल्ली में भीड़भाड़ वाली व्यस्त अवधि के दौरान एक ऑटोरिक्शा में बैठकर अपने लैपटॉप पर वायु प्रदूषण का आकलन करते हुए जोशुआ आप्टे। फोटोग्राफः अल्ताफ कादरी ©एपी इमेजेज
मैनेजमेंट कंसल्टिंग का एक लोकप्रिय मुहावरा है कि ‘‘आप जिसे माप नहीं सकते, उसका प्रबंधन आप नहीं कर सकते।’’ इसलिए सिर्फ यह जानना काफी नहीं है कि नई दिल्ली और दुनिया के कई अन्य बडे़ शहरों की हवा बुरी तरह प्रदूषित है। वायु प्रदूषण का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने और जन-स्वास्थ्य सुधारने के लिए शहर योजनाकार, वायु गुणवत्ता नियंत्रक, स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने वालों और दूसरे जिम्मेदार लोगों के लिए विभिन्न तरह के प्रदूषकों के बारे में जानकारी एकत्र करना आवश्यक है और यह जानना भी कि किस तरह वे घातक प्रभाव पैदा करते हैं।
ऑस्टिन स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास में सिविल, आर्किटेक्चरल एवं एनवार्यन्मेंटल इंजीनियरिंग विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर जोशुआ आप्टे कहते हैं, ‘‘असली बात यह है कि सही आकलन के बगैर न तो हम वायु प्रदूषण के स्रोतों के बारे में कुछ जान सकते हैं, और न ही यह कि इससे निपटने के लिए क्या किया जाना चाहिए।’’ आप्टे 2010 में आईआईटी, दिल्ली में फुलब्राइट-नेहरू फेलो थे। इस तरह की समस्याओं के समाधान के लिए अंतरराष्ट्रीय तालमेल ज़रूरी है। वह कहते हैं, ‘‘यह अच्छी बात है कि भारतीय और अमेरिकी वैज्ञानिक वायु प्रदूषण और उसके स्रोतों के बारे में जानने के लिए साथ-साथ काम कर रहे हैं।’’
ये वैज्ञानिक शहरों में, जो आप्टे के फोकस का भी केंद्रबिंदु है, और आसमान में वायु प्रदूषण से निपटने के बारे में काम कर रहे हैं। आसमान में वायु प्रदूषण के बारे में आईआईटी, दिल्ली के सेंटर फॉर एटमॉसफेरिक साइंसेज में असोसिएट प्रोफेसर सागनिक डे के नेतृत्व में अध्ययन हो रहा है, जिसमें उपग्रहों की मदद से अंतरिक्ष से भारत के वायु प्रदूषण को मापा जा रहा है।
डे कहते हैं, ‘‘उपग्रह पृथ्वी के पर्यावरण में बदलाव के बारे में बहुत सारी सूचनाएं देते हैं, जो भारत के लिए बहुत जरूरी हैं… क्योंकि हमारे यहां वायु प्रदूषण समेत अनेक क्षेत्रों में सर्वेक्षण कर सकने वाली मजबूत प्रणालियां नहीं हैं।’’
वह कहते हैं, ‘‘वायु प्रदूषण सिर्फ दिल्ली और इसके आसपास तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में प्रदूषण का स्तर बेहद खतरनाक है, जहां सात करोड़ लोग रहते हैं। देश के बहुत-से द्वितीय श्रेणी औरतृतीय श्रेणी के शहरों में वायु प्रदूषण बढ़ रहा है। अगर अभी इसके खिलाफ कदम नहीं उठाया जाता, तो ये छोटे नगर और शहर भी निकट भविष्य में खामियाजा भुगतेंगे। देश के ग्रामीण इलाकों में भी वायु प्रदूषण भीषण है, इसलिए यह धारणा कि वायु प्रदूषण सिर्फ शहरों में है, भारत के लिए सही नहीं है।’’
इस परियोजना में जिन दूसरे लोगों ने सहयोग किया, वे हैं आईआईटी, दिल्ली में असोसिएट प्रोफेसर गजाला हबीब और सरथ गुट्टीकुंडा, जो कि भारत में वायु प्रदूषण से जुड़ी सूचनाएं, शोध और विश्लेषण करने वाली वेबसाइट के संस्थापक और निदेशक हैं।
आप्टे के शोध का मुख्य फोकस पीएम यानी पार्टिकुलेट मैटर है। बाल से भी बारीक ये कण हमारे फेफड़ों में प्रवेश करने पर स्वास्थ्य से जुड़ी कई तरह की समस्याएं पैदा करते हैं। आप्टे कहते हैं, ‘‘हम सभी तरह के प्रदूषकों से चिंतित हैं, लेकिन पीएम हमारी चिंता का सबसे बड़ा कारण है, क्योंकि पृथ्वी पर होने वाली कुल मौतों में से सात से 12 फीसदी मौतें पीएम के कारण होती हैं और भारत जैसे देशों में जन-स्वास्थ्य पर इसका भारी असर पड़ता है। भारतीय शहरों में पीएम पर अंकुश लगाना बेहद कठिन है, क्योंकि वाहनों की आवाजाही, निर्माण कार्य, बिजली उत्पादन, उद्योग, डीजल जेनरेटर, लकड़ी, कोयला और उपले का ईंधन के तौर पर इस्तेमाल, खेतों में फसलों के अवशिष्ट जलाने आदि के कारण हवा में पीएम का स्तर बढ़ जाता है….भारत के शहरों में प्रदूषण के दर्जनों स्रोत हैं।’’
आप्टे और उनके दूसरे शोध सहयोगी वायु प्रदूषण का स्तर मापने के लिए इलेक्ट्रॉनिक मॉनिटरिंग डिवाइसेज या सेंसर का इस्तेमाल करते हैं, जो अलग-अलग समय पर अलग-अलग नतीजे दिखाते हैं। लेकिन चूंकि ये सेंसर महंगे होते हैं और सर्वसुलभ भी नहीं होते, इसलिए वे वहीं के प्रदूषण का स्तर बता पाते हैं, जहां स्थापित होते हैं। आप्टे का समूह भारत में वायु प्रदूषण के बारे में वैज्ञानिकों की समझ को व्यापक करने और कम लागत वाले मोबाइल सेंसर के जरिये प्रदूषण का स्तर मापने पर ज्यादा जोर देने में लगा है, जो अलग-अलग शहरों में प्रदूषण का स्तर मापने में सक्षम है।
वह कहते हैं, ‘‘मोबाइल सेंसर से किया जाने वाला आकलन भारत में प्रदूषण के मोर्चे पर व्याप्त खाई को पाटने में मददगार साबित होगा। जैसे-जैसे हम प्रदूषण का स्तर मापने में ज्यादा वास्तविक होते जाएंगे, वैसे-वैसे हम इनसे जुड़े निष्कर्षों को ज्यादा जोर देकर बता पाएंगे। उदाहरण के लिए, तब हम यह भी बता पाएंगे कि किसी के घर के सामने प्रदूषण का स्तर क्या है?’’
आप्टे और उनके सहयोगियों का मानना है कि भारत में वायु प्रदूषण की समस्या का समाधान प्रदूषण की वास्तविक स्थिति पर आधारित होना चाहिए, जो व्यापक शोध से ही संभव है, जो वे कर रहे हैं।
वह कहते हैं, ‘‘पर्यावरण की समस्या का वास्तविक चित्र सामने लाने और उसके नियंत्रण के लिए कदम उठाने के वास्ते हमें विज्ञान का समेकित इस्तेमाल करना चाहिए। वायु प्रदूषण समाज से भारी कीमत वसूलता है, जबकि यह ऐसी समस्या नहीं, जिसे आसानी से हल कर लिया जाएगा। इसके समाधान के व्यापक लाभ हैं, लेकिन उसकी कीमत भी उतनी ही अधिक है। इस समस्या का व्यापक स्तर पर समाधान राजनीतिक रूप से कठिन है, इसलिए वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए हमें विज्ञान की आवश्यकता है और यह देखने की भी जरूरत है कि जो कदम हम उठा रहे हैं, वे प्रभावी हैं भी या नहीं।’’ डे कहते हैं, ‘‘हमारा पूरा ध्यान नीति-निर्माताओं को रणनीतिक जानकारी मुहैया कराना है, ताकि वे इस समस्या का प्रभावी समाधान निकाल सकें।’’
स्टीव फ़ॉक्स स्वतंत्र लेखक, पूर्व समाचारपत्र प्रकाशक और रिपोर्टर हैं। वह वेंचुरा, कैलिफ़ोर्निया में रहते हैं।
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